'न्याय' भारत की संवैधानिक जिम्मेदारी

विवेकानंद माथने
‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) में एक परिवार को जीने के लिये न्यूनतम 12 हजार रुपये मासिक आय आवश्यक मानी गई है। इस प्रकार गरीबी रेखा के साथ एक नई जीवन रेखा तैयार करने का प्रयास किया गया। इस रेखा से कम आय प्राप्त करनेवाले परिवारों की आय 12 हजार रुपये के उपर लाई जायेगी। शुरुआती दौर में सबसे गरीब 20 प्रतिशत याने 5 करोड परिवारों को याने लगभग 25 करोड लोगों को जीवन रेखा के उपर लाने का काम किया जायेगा और उनके खाते में प्रतिमाह 6 हजार रुपये नगद राशि जमा की जायेगी। अगर यह योजना सफल होती है तो बचे हुये परिवारों को भी प्रतिमाह 12 हजार रुपये की जीवन रेखा के उपर लाया जायेगा। ‘न्याय’ की राशि परिवार के महिला सदस्य के नामपर जमा करने का विचार महिला और पारिवारिक भावना का सन्मान है। अगर कांग्रेस अपने घोषणापत्र में दिया ‘न्याय’ का आश्वासन निभाती है, तो देश की गरीबी दूर करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। यह योजना पूरी दूनिया की गरीबी दूर करने के लिये भी एक नया रास्ता खोल सकती है।
श्रमिकों के श्रम और प्राकृतिक संसाधन से ही संपत्ति का निर्माण होता है। इस संपत्ति पर पूरे समाज का अधिकार है। लेकिन उसके असमान वितरण के कारण विषमता बढी है। औद्योगिकरण के इस दौर में आर्थिक विषमता चरमसीमा पर पहुंची है। पूरी दुनिया की 75 प्रतिशत संपत्ति केवल एक प्रतिशत कारपोरेट घरानों के पास इकठ्ठा हुई है और बाकी आबादी को जीने के लिये कठोर संघर्ष करना पड रहा है। जिसके कारण लोगों में आक्रोश पैदा हुआ है। आनेवाले समय में दुनिया में कारपोरेट घरानों के विरुद्ध जनता के बिच संघर्ष अटल है।
जबतक लूट की व्यवस्था जारी है तबतक प्रेम और करुणा पूरे परिवर्तन के लिये केवल इंतजार नही कर सकती। उसे भूखों को खाना देने की चुनौति स्वीकार करनी पडती है। शोषणकारी व्यवस्था का परिणाम ही गरीबी है। इसलिये जब तक शोषणकारी व्यवस्था समाप्त नही होती तब तक अमीरों के पास इकठ्ठा हुई लूट की संपत्ति को गरीबों तक पहुंचाने के रास्ते ढूंढने ही होंगे। न्याय भीख नही है बल्कि शोषित समाज का हक है, जो शोषणकारी व्यवस्था ने उनसे छीना है।    
आज ‘न्याय’ संभव है क्योंकि कारपोरेट घरानों को बार बार चेतावनी मिल रही है कि अगर वह लूट की संपत्ति का थोडा हिस्सा लोगों को नही लौटायेंगे तो उन्हे बढते आक्रोश का सामना करना पड सकता है और तब उनके लिये जीना आसान नही होगा। इस डर से वह खुद भी संपत्ति का थोडा हिस्सा बांटकर लोगों का आक्रोश कम करना चाहते है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने बुद्धिजीवीयों के मस्तिष्क की जगह लेना शुरु किया तब से उनका डर और बढा है।
एक तरफ प्रेम, करूणा और दूसरी तरफ कारपोरेट घरानों में पैदा डर ने यूनिवर्सल बेसिक इन्कम गारंटी योजना को जन्म दिया है। जो हर व्यक्ति को जीने के लिये एक सुनिश्चित आय की गारंटी प्रदान करती है। ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) उसीका सुधारित रुप है। एक न्यूनतम आय सुनिश्चित कर उसे प्रदान करने का काम ‘न्याय’ करेगा। देश में आर्थिक विषमता के शिकार किसान और बरोजगारों के बढते आक्रोश ने, खासकर बडे पैमाने पर हो रही किसान आत्महत्याओं ने राज्यकर्ताओं को ‘न्याय’ के लिये मजबूर किया है।
‘मनरेगा’ योजना के पीछे भी यही विचार रहा है। आधुनिक विकास नीति और यंत्रों के अत्याधिक उपयोग के कारण जब हाथों से काम छीना गया तब ग्रामीण बेरोजगार युवाओं में बढता आक्रोश कम करने के लिये लिये मनरेगा का जन्म हुआ। जो काम के बदले मजदूरी की गारंटी देती है। वैसे ही एक अन्यायी व्यवस्था के चलते गरीबी, बेरोजगारी के शिकार हुये समाज को राहत देनेवाली नई योजना ‘न्याय’ है। ‘न्याय’ भारत की संवैधानिक जिम्मेदारी है।  
‘न्याय’ के लिये पैसा कहां से आयेगा? यह अमीरों के हितेशी लोगों व्दारा उठाया गया सवाल है। ‘न्याय’ से मध्यमवर्ग पर टैक्स बढने की आशंका एक झूठा प्रचार है। भारत सरकार और राज्य सरकारों का एकत्रित सालाना बजट 55-60 लाख करोड रुपयोंका है। प्राथमिक अनुमान के अनुसार ‘न्याय’ के लिये हरसाल 3-4 लाख करोड राशि लगेगी। इसे आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
भारत में अमीर कारपोरेट घरानों पर बहुत कम इंकम टैक्स लगाया जाता है। कारपोरेट कंपनियों को हर साल 4-5 लाख करोड रुपये टैक्स माफ किया जाता है। उद्योगपतियों को हरसाल लाखों करोड रुपयों का कर्ज माफ किया जाता है। कालेधन को खेती की आय दिखाकर हरसाल लाखों करोड की टैक्स चोरी की जाती है। सीएसआर फंड की 2 प्रतिशत राशि 50 हजार करोड रुपये है। एक प्रतिशत अमीरों पर थोडा टैक्स बढाने या कालेधनवालों को टैक्स के दायरे में लाने से इतनी बडी राशी प्राप्त होगी कि उससे देश में सभी को न्याय देना संभव है।  संपूर्ण न्याय तभी संभव है जब देश कारपोरेटी गुलामी से मुक्त होगा। हमारी आर्थिक योजना ऐसी होगी जिसमें हर हाथ में काम होगा और हर काम करनेवालों को न्यूनतम आवश्यकता पूर्ति के लिये जरुरी आमदनी प्राप्त होगी। देश के हर श्रमिक किसान, मजदूर, कामगार, व्यापारी और उद्योजक सभी को एक परिवार के जीने के लिये वेतन आयोग द्वारा समय समय पर निर्धारित की गई न्यूनतम बेसिक आय प्राप्त होगी। जबतक ऐसी आर्थिक व्यवस्था का हम गठन नही करते तबतक हर परिवार को काम से प्राप्त मासिक आय और वेतन आयोग द्वारा निर्धारित न्यूनतम बेसिक आय इसकी अंतर राशि दी जाने की व्यवस्था कि जानी चाहिये। न्याय को उसी दिशामें एक कदम माना जाना चाहिये।
महात्मा गांधी ने कहा था (1937) “.. इस गरीब देश में भी कुछ नये कर लगाने की गुंजाइश है। संपत्तिपर अभी काफी कर नही लगा है। संसारके अन्य देशों में जो कुछ भी हो, यहां तो व्यक्तियों के पास अत्याधिक संपत्ति का होना भारत की मानवता के प्रति एक अपराध ही समझा जाना चाहिये। इसलिये संपत्ति की एक निश्चित मर्यादा के बाद जितना भी कर उसपर लगाया जाये, थोडा ही होगा। जहां तक मुझे पता है, इंग्लड में व्यक्ति की आय एक निश्चित राशि तक पहुंच जाने के बाद उससे आय का 70 प्रतिशत तक कर लिया जाता है। कोई वजह नही कि भारत में हम इससे भी अधिक कर क्यों न लगाये।”
ट्रस्टीशिप के मसौदे में वह कहते है “जिस तरह उचित न्यूनतम जीवन वेतन स्थिर करनेकी बात कही गई है, ठीक उसी तरह यह भी तय कर दिया जाना चाहिये कि वास्तवमें किसी भी व्यक्तिकी ज्यादासे ज्यादा कितनी आमदनी हो। न्यूनतम और अधिकतम आमदनीयोंके बीचका फर्क उचित, न्यायपूर्ण और समय समय पर इस प्रकार बदलता रहनेवाला होना चाहिये कि उसका झुकाव इस फर्क को मिटानेकी तरफ हो।”